भगवद गीता अध्याय 1 श्लोक 21 से 35
श्लोक 21 से 35

भगवद गीता अध्याय 1 – अर्जुन विषाद योग श्लोक 1 से 20
श्लोक 21
अर्जुन उवाच —
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ॥ 21 ॥
अर्थ :
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, “हे अच्युत (श्रीकृष्ण), दोनों सेनाओं के बीच मेरा रथ खड़ा कीजिए, ताकि मैं इन युद्ध करने वाले योद्धाओं को देख सकूँ।”
श्लोक 22
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ 22 ॥
अर्थ:
मैं देखना चाहता हूँ कि यहाँ कौन-कौन से वीरों ने मिलकर धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए लड़ना चाहाते है।
श्लोक 23
सञ्जय उवाच —
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ 23 ॥
अर्थ:
जब अर्जुन ने कहा, “हे भारत (धृतराष्ट्र),” संजय ने कहा, हृषीकेश भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को खड़ा कर दिया।
श्लोक 24
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥ 24 ॥
अर्थ:
हे पार्थ (अर्जुन), देखो, ये सब कौरव यहाँ इकट्ठा हुए हैं, श्रीकृष्ण ने भीष्म, द्रोणाचार्य और अन्य बड़े राजाओं के सामने कहा।
श्लोक 25
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥ 25 ॥
अर्थ:
वहाँ अर्जुन ने अपने पिताओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, दोनों सेनाओं में खड़े हुए अपने मित्रों, ससुरों और शुभचिंतकों को देखा।
श्लोक 26
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥ 26 ॥
अर्थ:
अर्जुन बहुत करुणा से भर गया और दुखी होकर यह कहा जब वह अपने सभी रिश्तेदारों को युद्ध के लिए खड़ा देखा।
श्लोक 27
अर्जुन उवाच —
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥ 27 ॥
अर्थ:
“हे कृष्ण! अपने स्वजनों को युद्ध की इच्छा से खड़ा देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मेरा मुख सूख रहा है,” अर्जुन ने कहा।
श्लोक 28
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥ 28 ॥
अर्थ:
मेरा शरीर काँप रहा है, रोमांच हो रहा है, हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा जल रही है।
श्लोक 29
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ 29 ॥
अर्थात्:
प्रिय केशव! मैं खड़ा भी नहीं रह सकता, मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मुझे अशुभ शकुन लग रहे हैं।
श्लोक 30
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥ 30 ॥
अर्थात्:
हे कृष्ण! युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे कोई लाभ नहीं दिखाई देता। मुझे जीत, राज्य और सुख की इच्छा नहीं है।
श्लोक 31
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ 31 ॥
अर्थ:
हे गोविन्द! जब हम राज्य, भोग और सुख उन लोगों के लिए चाहते हैं, जो यहाँ युद्ध कर रहे हैं, तो हमें जीवन या राज्य से क्या फायदा?
श्लोक 32
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ 32 ॥
अर्थ:
युद्ध में मेरे सामने खड़े हैं— अपने प्राण और धन छोड़ने को तैयार, मेरे आचार्य, पिता, पुत्र और पितामह।
श्लोक 34
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
न हन्तव्याः स्वजनाः ख्र्ष्ण कथं हत्वा सुखिनः स्मः ॥ 34 ॥
अर्थ:
श्रीकृष्ण! तीनों राज्यों के लिए भी हो, मैं इन्हें मारना नहीं चाहता; पृथ्वी राज्य के लिए भी नहीं। हम अपने ही स्वजनों को मारकर सुखी कैसे हो सकते हैं?
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श्लोक 35
एतान्हत्वा क आत्मानः सुखिनः स्याम माधव ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्यामा माधव ॥ 35 ॥
अर्थ:
हम इन स्वजनों को मारकर खुश नहीं रह सकते, माधव। स्वजन को मारकर सुख पाना असंभव है।